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दलहनी फसलें

मटर एवं अन्य दलहनी फसलों में जड़ के सड़ने एवं पौधे के पीला होने की समस्या को कैसे करें प्रबंधित?

मटर एवं अन्य दलहनी फसलों में जड़ के सड़ने एवं पौधे के पीला होने की समस्या को कैसे करें प्रबंधित?

मटर एवम अन्य दलहनीय फसलों में लगने वाले जड़ गलन बहुत ही महत्त्वपूर्ण रोग है ,क्योंकि इससे उपज प्रभावित होती है।यह रोग मुख्यतः जड़ों को प्रभावित करता है, जिससे अंकुर ठीक से नहीं निकलते, पौधों का कम विकास होता है, और उपज कम होती है। लक्षणों में दबे हुए घाव, जड़ों का भूरे या काले रंग से बदरंग होना, सिकुड़ती हुई जड़ प्रणाली और जड़ों की गलन शामिल हैं। यदि गांठें निकलती भी हैं, तो वे संख्या में कम, छोटी और हल्के रंग की होती हैं। संक्रमित बीजों से उगने वाले पौधों में अंकुर निकलने के कुछ समय बाद ही मुरझा जाते हैं। जीवित बचने वाले पौधे हरितहीन होते हैं और उनकी जीवन शक्ति कम होती है। विकास की बाद कि अवस्थाओं में संक्रमित होने वाले पौधों में विकास अवरुद्ध हो जाता है। सड़ते हुए ऊतकों पर अवसरवादी रोगाणु बसेरा करते हैं, जिससे लक्षण और अधिक खराब हो जाते हैं। इस रोग में कभी भी पूरा खेत प्रभावित नही होता है बल्कि इसके विपरित यह रोग खेतों में, प्रायः धब्बों में (पैच) होता है और रोगाणुओं के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर प्रभावित क्षेत्र बढ़ जाता है।

रूट रॉट रोग को आर्द्र गलन रोग के नाम से भी जाना जाता है। मटर की फसल को इस रोग से काफी नुकसान होता है। लेकिन यदि इस रोग का सही तरह से प्रबंध किया जाए तो पौधों को इस रोग से बचाने के साथ हम अच्छी गुणवत्ता की फसल भी प्राप्त कर सकेंगे। यह एक मृदा जनित रोग है वातावरण में अधिक आर्द्रता होने पर यह रोग ज्यादा तेजी से फैलते हैं।आमतौर पर इस रोग का प्रकोप छोटे पौधों में अधिक देखने को मिलता है।इस रोग से प्रभावित पौधों की निचली पत्तियां हल्के पीले रंग की होने लगती हैं।कुछ समय बाद पत्तियां सिकुड़ने लगती हैं। पौधों को उखाड़ कर देखा जाए तो उसके जड़ सड़े हुए दिखते हैं।

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रोग से प्रभावित पौधे सूखने लगते हैं। इससे उत्पादन में भारी कमी आती है।लक्षण मिट्टी में रहने वाले कवकीय जीवाणुओं के मिश्रण के कारण होते हैं जो पौधों को उनके विकास के किसी भी चरण में संक्रमित कर सकते हैं। राइज़ोक्टोनिया सोलानी और फ़्यूज़ेरियम सोलानी शेष समूह की तरह इस मिश्रण का हिस्सा हैं, यह मिट्टी में लंबे समय तक जीवित रह सकते हैं। जब परिस्थितियाँ अनुकूल होती हैं, तो ये जड़ों के ऊतकों पर बसेरा करते हैं और पौधे के ऊपरी भाग तक पानी और पोषक तत्वों का परिवहन बाधित करते हैं, जो पौधों के मुरझाने और हरितहीन होने का कारण है। जैसे- जैसे ये पौधों के ऊतकों के अंदर बढ़ते जाते हैं, ये प्रायः इन कवकों के साथ पाए जाते हैं जो जड़ों के सामान्य विकास और गांठों के निर्माण को बाधित करते हैं। मौसम के आरंभ में ठंडी और नम मिट्टी रोग के विकास के लिए अनुकूल होती है। दरअसल, लक्षण प्रायः जलजमाव के इलाक़ों में ज्यादा देखे जाते हैं। बुआई की तिथि और बुआई की गहराई का भी अंकुरों के निकलने और उपज पर गहरा प्रभाव होता है।

मटर एवम अन्य दलहनीय फसलों में लगने वाले जड़ गलन रोग को कैसे करें प्रबंधित?

फसल चक्र के माध्यम से रोकथाम

रोगज़नक़ों के जीवन चक्र को बाधित करने और जड़ सड़न के जोखिम को कम करने के लिए फसल चक्रण एक मौलिक अभ्यास है। एक ही खेत में लगातार मटर या अन्य दलहनी फसलें लगाने से बचें। इसके बजाय, रोग चक्र को तोड़ने और मिट्टी में रोगज़नक़ों के निर्माण को कम करने के लिए गैर-दलहनी फसलों के साथ बारी-बारी से खेती करें।

मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन

जड़ सड़न को रोकने के लिए सर्वोत्तम मृदा स्वास्थ्य बनाए रखना महत्वपूर्ण है। जलभराव की स्थिति से बचने के लिए उचित जल निकासी सुनिश्चित करें, क्योंकि अतिरिक्त नमी रोगज़नक़ों के विकास के लिए अनुकूल वातावरण बनाती है। कार्बनिक पदार्थों के समावेश के माध्यम से मिट्टी की संरचना और वातन में सुधार से मिट्टी के समग्र स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है और रोग का दबाव कम हो सकता है।

प्रतिरोधी किस्में

जड़ सड़न से निपटने के लिए प्रतिरोधी किस्मों का चयन एक प्रभावी रणनीति है। प्रजनन कार्यक्रमों ने विशिष्ट रोगजनकों के प्रति उन्नत प्रतिरोध वाली किस्में विकसित की हैं। अपने क्षेत्र में प्रचलित जड़ सड़न रोगज़नक़ों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता प्रदर्शित करने वाली मटर और दलहन फसल की किस्मों की पहचान करने और चुनने के लिए स्थानीय कृषि विस्तार सेवाओं या बीज आपूर्तिकर्ताओं से परामर्श करें।

बीज उपचार

रोपण से पहले बीजों को फफूंदनाशकों से उपचारित करना मिट्टी से पैदा होने वाले रोगजनकों से बचाव का एक निवारक उपाय है। कवकनाशी बीज उपचार एक सुरक्षात्मक बाधा प्रदान कर सकता है, जो जड़ों के प्रारंभिक संक्रमण को रोकता है। बीज व्यवहार्यता से समझौता किए बिना उचित बीज उपचार सुनिश्चित करने के लिए अनुशंसित आवेदन दरों और दिशानिर्देशों का पालन करें।

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उचित सिंचाई

जड़ सड़न को रोकने के लिए जल प्रबंधन महत्वपूर्ण है। एक नियंत्रित सिंचाई प्रणाली को लागू करने से जो अत्यधिक पानी भरने से बचती है और समान नमी वितरण सुनिश्चित करती है, रोगज़नक़ प्रसार के लिए कम अनुकूल परिस्थितियाँ बनाने में मदद करती है।

जैविक नियंत्रण

जैविक नियंत्रण में रोगजनक कवक के विकास को दबाने के लिए लाभकारी सूक्ष्मजीवों का उपयोग करना शामिल है। कुछ बैक्टीरिया और कवक प्रतिपक्षी के रूप में कार्य करते हैं, जो जड़ सड़न रोगजनकों के विकास को रोकते हैं। जैव कीटनाशकों को लगाने या मिट्टी में लाभकारी रोगाणुओं को शामिल करने से फसल के जड़ क्षेत्र को स्वस्थ बनाने में योगदान मिल सकता है।ट्राइकोडर्मा की 10 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोल कर प्रयोग करने से मिट्टी से फैलने वाले रोग(Soil borne disease), जैसे कि दलहन की जड़ों की सड़न पर नियंत्रण पाने के लिए किया जा सकता है। इसके साथ ही, ये जीवित बचने वाले पौधों के विकास और उत्पादकता को बेहतर करता है।

स्वच्छता के उपाय

रोग प्रबंधन के लिए क्षेत्र में अच्छी स्वच्छता अपनाना आवश्यक है। इनोकुलम के निर्माण को रोकने के लिए संक्रमित पौधों के अवशेषों को तुरंत हटा दें और नष्ट कर दें। दूषित मिट्टी को असंक्रमित क्षेत्रों में फैलने से बचाने के लिए उपकरणों और औजारों को अच्छी तरह साफ करें।

पोषक तत्व प्रबंधन

पौधों के स्वास्थ्य और रोगों के प्रति लचीलेपन के लिए उचित पोषक तत्व स्तर बनाए रखना महत्वपूर्ण है। सुनिश्चित करें कि मटर और दलहन फसलों को पर्याप्त लेकिन अत्यधिक पोषक तत्व न मिलें, क्योंकि असंतुलन से पौधें जड़ सड़न रोग के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते है। पोषक तत्वों के स्तर की निगरानी करने और तदनुसार उर्वरक प्रथाओं को समायोजित करने के लिए नियमित मिट्टी परीक्षण करें।

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निगरानी और शीघ्र पता लगाना

जड़ सड़न के शुरुआती लक्षणों का पता लगाने के लिए नियमित क्षेत्र की निगरानी महत्वपूर्ण है। मुरझाने, पीले पड़ने, या रुके हुए विकास पर ध्यान दें, जो सामान्य लक्षण हैं। शीघ्र पता लगने से त्वरित हस्तक्षेप की अनुमति मिलती है, जिससे फसल की उपज पर बीमारी का प्रभाव कम हो जाता है। संभावित मुद्दों की पहचान करने के लिए स्काउटिंग कार्यक्रमों को लागू करने और नैदानिक ​​​​उपकरणों का उपयोग करने पर विचार करें।

रासायनिक नियंत्रण

यदि खेत में जड़ सड़न पहले से ही स्थापित है, तो रासायनिक नियंत्रण को अंतिम उपाय माना जाता है। जड़ सड़न नियंत्रण के लिए लेबल किए गए फफूंदनाशकों का प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन पर्यावरणीय और आर्थिक कारकों को ध्यान में रखते हुए इस दृष्टिकोण को विवेकपूर्ण तरीके से अपनाया जाना चाहिए। रोको एम या कार्बेंडाजिम नामक कवकनाशक की 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर मिट्टी का उपचार करने से (Soil drenching) रोग की उग्रता में भारी कमी आती है। उचित रासायनिक नियंत्रण उपायों पर मार्गदर्शन के लिए स्थानीय कृषि विशेषज्ञों या विस्तार सेवाओं से परामर्श लें।

सारांश

मटर और दलहन फसलों में जड़ सड़न के प्रबंधन के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जो निवारक उपायों, सांस्कृतिक प्रथाओं और, यदि आवश्यक हो, लक्षित हस्तक्षेपों को जोड़ती है। इन रणनीतियों को एक एकीकृत कीट प्रबंधन योजना में शामिल करके, किसान जड़ सड़न के प्रभाव को कम कर सकते हैं, फसल के स्वास्थ्य की रक्षा कर सकते हैं और समग्र फसल उत्पादकता में लगातार वृद्धि कर सकते हैं।

दलहन बचाएगा सबकी जान

दलहन बचाएगा सबकी जान

दलहनी फसलें किसान और आम इन्सान सभी की जिंदगी बचा सकती है। हर घर में पांव पसार रही बीमरियां बेहद कम हो सकती हैं बशर्ते भोजन की हर थाली में हर दिन दाल शामिल हो। यह तभी संभव है जबकि इनकी कीमतें नींचे आएं। किसान की फसल के समय उन्हें भी ​उचित मूल्य मिले। दलहनी फसलें केमिकल फर्टिलाइजर नहीं चाहतीं। इसी लिए दलहन में प्रोटीन आदि तत्वों के अलावा आर्गेनिक कंटेंट ज्यादा होता है। सरकारों की उपेक्षित नीतियों के चलते फसल के समय किसानों को दालहनी फसलों की समर्थन मूल्य के सापेक्ष आधी कीमतें भी नहीं मिलतीं इधर बिचौलिए और भरसारिए मोटा माल पैदा करते हैं। दलहन में पानी भी कम लगता है। अहम बात यह है कि इसमें किसान की कल्टीवेशन कास्ट यानी कि लागत भी बेहद कम आती है। इसके बाद भी किसान इसे कम लगाते हैं तो उसके कई कारण हैं और इनके लिए सरकारें ही जिम्मेवार हैं। दहलहन के मामले में भारत दुनिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता और आयायत देश है। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने विश्व दलहन दिवस पर पिछले दिनों दलहन उत्पादन में टात्मनिर्भरता की ओर बढ़ने वाली सोच को सार्व​जनिक किया लेकिन वह इस दिशा में क्या कदम उठाएंगे यह देखेने वाली बात है। 

दलहन की नई फसल कब आती है

चना, मटर, अरहर एवं मशूर दलहनी फसलें अक्टूबर-नवंबर में बोई जाती है एवं मार्च-अप्रैल तक हार्वेस्ट हो जाती हैं। 

दलहन की फसल मिट्टी को उपजाऊ कैसे बनाती हैं

दलहन की फसलों यानी उर्द, मूंग, मशूर, चना, अरहर, ढेंचा आदि की जड़ों में प्राकृतिक गांठे होती हैं। पौधा अपनी विकास के लिए वायुमंडल से नाइट्रोजन का अवशोषण करता है। यह नाइट्रोजन पौधे की जड़ों की गानों में इकट्ठा होती है। फसल पक जाने पर उसे काट लिया जाता है और जड़ों में संकलित नाइट्रोजन जमीन के अंदर ही सुरक्षित रह जाती है जो कि अगली फसल के काम आती है। 

देश में दलहन की स्थिति

 

 देश ने 2018-19 के फसल वर्ष (जुलाई-जून) के दौरान 2.34 करोड़ टन दलहन का उत्पादन हुआ । यह 2.6 से 2.7 करोड़ टन की घरेलू मांग से कम है । इस अंतर की भरपाई आयात से की गई। हालांकि, चालू साल में सरकार 2.63 करोड़ टन दलहन उत्पादन का लक्ष्य लेकर चल रही है।

आवारा पशु बने सरदर्द

 

 दलहन के लिए आवारा और जंगली पशु सबसे बड़ी दिक्कत है। जिन इलाकों में पानी की बेहद कमी है वहां दलहन का क्षेत्र बढ़ाया जा सकता है। बड़े क्षेत्र में किसी फसल को लगने से किसानों का आवारा पशुओं आदि का नुकसान भी कम हो जाता है।

दलहनी फसलों पर छत्तीसढ़ में आज से होगा अनुसंधान

दलहनी फसलों पर छत्तीसढ़ में आज से होगा अनुसंधान

विकास के लिए रायपुर में आज से जुटेंगे, देश भर के सौ से अधिक कृषि वैज्ञानिक

रायपुर। छत्तीसगढ़ में वर्तमान समय में लगभग 11 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में दलहनी फसलें ली जा रहीं है, जिनमें अरहर, चना, मूंग, उड़द, मसूर, कुल्थी, तिवड़ा, राजमा एवं मटर प्रमुख हैं। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर में दलहनी फसलों पर अनुसंधान एवं प्रसार कार्य हेतु तीन
अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजनाएं - मुलार्प फसलें (मूंग, उड़द, मसूर, तिवड़ा, राजमा, मटर), चना एवं अरहर संचालित की जा रहीं है जिसके तहत नवीन उन्नत किस्मों के विकास, उत्पादन तकनीक एवं कृषकों के खतों पर अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन का कार्य किया जा रहा है। विश्वविद्यालय द्वारा अब तक विभिन्न दलहनी फसलों की उन्नतशील एवं रोगरोधी कुल 25 किस्मों का विकास किया जा चुका है, जिनमें मूंग की 2, उड़द की 1, अरहर की 3, कुल्थी की 6, लोबिया की 1, चना की 5, मटर की 4, तिवड़ा की 2 एवं मसूर की 1 किस्में प्रमुख हैं।


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छत्तीसगढ़ राज्य गठन के उपरान्त पिछले 20 वर्षों में प्रदेश में दलहनी फसलों के रकबे में 26 प्रतिशत, उत्पादन में 53.6 प्रतिशत तथा उत्पादकता में 18.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसके बावजूद प्रदेश में दलहनी फसलों के विस्तार एवं विकास की असीम संभावनाएं हैं। इसी के तहत देश में दलहनी फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए अनुसंधान एवं विकास हेतु कार्य योजना एवं रणनीति तैयार करने, देश के विभिन्न राज्यों के 100 से अधिक दलहन वैज्ञानिक, 17 एवं 18 अगस्त को कृषि विश्वविद्यालय रायपुर में जुटेंगे। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के सहयोग से यहां दो दिवसीय रबी दलहन कार्यशाला एवं वार्षिक समूह बैठक का आयोजन किया जा रहा है। कृषि महाविद्यालय रायपुर के सभागृह में आयोजित इस कार्यशाला का शुभारंभ प्रदेश के कृषि मंत्री रविन्द्र चौबे करेंगे। शुभारंभ समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रदेश के कृषि उत्पादन आयुक्त डॉ. कमलप्रीत सिंह, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के उप महानिदेशक डॉ. टी.आर. शर्मा, सहायक महानिदेशक डॉ. संजीव शर्मा, भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर के निदेशक डॉ. बंसा सिंह तथा भारतीय धान अनुसंधान संस्थान हैदराबाद के निदेशक डॉ. आर.एम. सुंदरम भी उपस्थित रहेंगे। समारोह की अध्यक्षता इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. गिरीश चंदेल करेंगे। इस दो दिवसीय रबी दलहन कार्यशाला में चना, मूंग, उड़द, मसूर, तिवड़ा, राजमा एवं मटर का उत्पादन बढ़ाने हेतु नवीन उन्नत किस्मों के विकास एवं अनुसंधान पर विचार-मंथन किया जाएगा।


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भारत आज मांग से ज्यादा कर रहा अनाज का उत्पादन

उल्लेखनीय है कि भारत में हरित क्रांति अभियान के उपरान्त देश ने अनाज उत्पादन के क्षेत्र में आत्म निर्भरता हासिल कर ली है और आज हम मांग से ज्यादा अनाज का उत्पादन कर रहे हैं। लेकिन, आज भी हमारा देश दलहन एवं तिलहन फसलों के उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर नहीं बन सका है और इन फसलों का विदेशों से बड़ी मात्रा में आयात करना पड़ता हैै। वर्ष 2021-22 में भारत ने लगभग 27 लाख मीट्रिक टन दलहनी फसलों का आयात किया है। देश को दालों के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लगातार प्रयास किये जा रहें हैं। केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा किसानों को दलहनी फसलें उगाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। वैसे तो भारत विश्व का प्रमुख दलहन उत्पादक देश है और देश के 37 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में दलहनी फसलों की खेती की जाती है। विश्व के कुल दलहन उत्पादन का एक चौथाई उत्पादन भारत में होता है, लेकिन खपत अधिक होने के कारण प्रतिवर्ष लाखों टन दलहनी फसलों का आयात करना पड़ता है।

यह समन्वयक करेंगे चर्चा

इस दो दिवसीय कार्यशाला में इन संभावनाओं को तलाशने तथा उन्हें मूर्त रूप देने का कार्य किया जाएगा। कार्यशाला में अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना चना के परियोजना समन्वयक डॉ. जी.पी. दीक्षित, अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना मुलार्प के परियोजना समन्वयक डॉ. आई.पी. सिंह, सहित देश में संचालित 60 अनुसंधान केन्द्रों के कृषि वैज्ञानिक शामिल होंगे।